बुद्ध भूमि श्रावस्ती उत्तर प्रदेश
जेतवन विहार
जेतवन विहार जहां भगवान बुद्ध ने निवास करके धर्म सभा मंडप में सत्य और अहिंसा समेत अपने समस्त उपदेशों का तीन चौथाई उपदेश यहीं से दिया था। इसमें दंतकुटी, संघाराम, राजकाराम आदि स्थान शामिल हैं। इस नाते श्रावस्ती जेतवन विहार का पूरे संसार में विशिष्ट महत्व है।
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार- राजा प्रसेनजीत का एक खूब सूरत बगीचा था जिसका नाम राजा ने अपने पुत्र जेत कुमार के नाम से रखा था। श्रावस्ती के अनाथ पिंडक ने भगवान बुद्ध के श्रावस्ती आगमन पर उनके रहने के लिए जेत के इस वन विहार की भूमि पर 18 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर ली थी। उसके बाद अनाथ पिंडक ने उस पर करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं और खर्च करके वहां विहारों, कुटियों, धर्म सभा मंडप, अग्निशालाओं, उद्यानों, तालाबों तथा स्नानगृहों आदि का निर्माण करवाकर तथागत भगवान बुद्ध को भिक्षुसंघ के साथ रहने के लिए सौंप दिया था। गौतम बुद्ध ने इसी जेतवन में 19 वर्ष तथा जेतवन से पूर्व स्थित पूर्वाराम में पांच वर्ष का वर्षावास किया था। जेतवन में ही गंध कुटी के निकट स्थित बोधि वृक्ष भी है। इसके नीचे विदेशी सैलानी बैठ कर भगवान बुद्ध के धम्म की शरण में अपने आप को पाते हैं। यह बोधि वृक्ष बौद्ध गया से लाकर बुद्ध के शिष्य आनंद ने लगाया था।
माना गया है कि श्रावस्ति के स्थान पर आज आधुनिक सहेत महेत ग्राम है जो एक दूसरे से लगभग डेढ़ फर्लांग के अंतर पर स्थित हैं। यह बुद्धकालीन नगर था, जिसके भग्नावशेष उत्तर प्रदेश राज्य के, बहराइच एवं गोंडा जिले की सीमा पर, राप्ती नदी के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं।
इन भग्नावशेषों की जाँच सन् 1862-63 में जनरल कनिंघम ने की और सन् 1884-85 में इसकी पूर्ण खुदाई डा. डब्लू. हुई (Dr. W. Hoey) ने की। इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है।इन स्तूपों के अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी मिले हैं। खुदाई के दौरान अनेक उत्कीर्ण मूर्तियाँ और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो नमूने के रूप में प्रदेशीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गई हैं। यहाँ संवत् 1176 या 1276 (1119 या 1219 ई.) का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म इस काल में प्रचलित था।जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान् महावीर ने भी श्रावस्ति में विहार किया था। चीनी यात्री फाहियान 5वीं सदी ई. में भारत आया था। उस समय श्रावस्ति में लगभग 200 परिवार रहते थे और 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आया, उस समय तक यह नगर नष्टभ्रष्ट हो चुका था। सहेत महेत पर अंकित लेख से यह निष्कर्ष निकाला गया कि ‘बल’ नामक भिक्षु ने इस मूर्ति को श्रावस्ति के विहार में स्थापित किया था। इस मूर्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया। कनिंघम का अनुमान था कि जिस स्थान से उपर्युक्त मूर्ति प्राप्त हुई वहाँ ‘कोसंबकुटी विहार’ था। इस कुटी के उत्तर में प्राप्त कुटी को कनिंघम ने ‘गंधकुटी’ माना, जिसमें भगवान् बुद्ध वर्षावास करते थे। महेत की अनेक बार खुदाई की गई और वहाँ से महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ति नगर सिद्ध करती है। श्रावस्ति नामांकित कई लेख सहेत महेत के भग्नावशेषों से मिले हैं।
जेतवन अनाथपिण्क महाविहार ( सहेठ वन )
पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित इस आश्रम (विहार) में अब केवल कुटियों की बुनियाद मात्र रह गयी है भारतीय। कहते हैं कि बुद्ध विहार के निर्माण लिये राजकीय जेतवन का चयन सुद्त्त ने किया था। सुदत् ने राजकुमार जेत से उधान के लिये किसी भी कीमत पर आग्रह किया। कुमार जेत ने भूखन्ड के बराबर सोने की मोहरों में सुदत ने लेन देन सुनिशचित किया। 18 करोड में विशाल भव्य सुविधाजनक विहार का निर्माण हुआ। राजकीय गौरव सम्मान के साथ यह अति रमणीय स्थान भगवान बुद्ध को दानार्पित किया गया। यही कारण है कि धर्म क्षेत्र मे सुदत - अनाथपिडंक का नाम चिरस्थाई हो गया। इसी तपोभूमि पर भगवान बुद्ध ने विशाल भिक्षु संघ के साथ उन्नीस चार्तुमास (वर्षावास) व्यतीत किये। सम्पूर्ण 871 उपदेशों में से 844 सूत्र इस जेताराम मे ही भगवान् बुद्ध ने दिया था।
-सहेठ ------महेथ के दक्षिण-पश्चिम दिशा में कुछ ही दूरी पर स्थित सहेथ 32 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। एक जमाने में इसी स्थान पर जेतावन मठ था। 32 एकड़ के इस क्षेत्र में अनेक मठ, स्तूप और मंदिर बने हुए हैं। बौद्ध धर्म का एक प्रारंभिक स्तूप भी यहां प्राप्त हुआ जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है। इस स्तूप में महात्मा बुद्ध के स्मृति चिह्न मिले हैं। इस स्थान की खुदाई से महात्मा बुद्ध की एक विशाल मूर्ति भी प्राप्त हुई है जिसे कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में रखा गया है।
मन्दिर सं। 1 एवं मोनेस्ट्री
यह जेतवन की एक और वृहत भवन संरचना है। जो इस सेहठ स्थान के उतरी छोर पर अवस्थित है। संघाराम पूर्वभिमुख है जिस के आँगन के मध्य में पूजा -गृह और मंडप स्थित है। यहाँ के आंतिम निर्माण काल में निर्मित इस संघाराम में एक मध्यवर्ती आँगन है जिस के चारो और बरामदायुक्त कोठरियों की कतार है। पूर्व की और स्थित कोठरियों में मध्यवर्ती कोठरी सबसे बड़ी है तथा यही मंडप प्रवेश का काम करती है जिस से होकर आँगन में प्रवेश होता है। इस मंडप की विशेषता यह है की यह अग्रभाग में ढलान युक्त फर्श वाला एक द्वार मंडप है , स्तंभ जरूर काष्ठ से बने रहे होगे।
द्वार -मंडप की छत चार स्तंभों पर टिकी रही होगी और द्वार मध्य में स्थित है जिस से होकर पूजा - गृह में प्रवेश होता है। दो स्तंभों की आधार - पीठिकाये अभी भी मौजूद है।
आनन्द बोधि वृक्ष ( पारिबोधि चैत्य)
जेतवन मे ही आगे बढने पर वयोवृद्ध पीपल वृक्ष ‘ आनन्द बोध ’ हैं । इसे पारिबोधि चैत्य भी कहते हैं । भन्ते आनन्द व भन्ते महामौदगल्यायन के सद् प्रयत्न से बोध गया के महायोगी वृक्ष की संतति तैयार की गयी , जिसे आनाथपिडंक ने यहाँ आरोपित किया था । कहते हैं कि भगवान् बुद्ध ने इसके नीचे एक रात्रि की समाधि लगाई थी ।
आनन्द बोधि वृक्ष के आस पास कई कुटियों की बुनियादें शेष हैं जो बुद्धकाल के स्वर्णिम युग की एक झलक दिखाती हैं। इनमें से प्रमुख हैं: कौशाम्बी कुटी (मन्दिर सं 3), चक्रमण स्थल, आनन्द कुटि, जल कूप, धर्म सभा मण्डप, करील कुटी (मन्दिर सं 1), पुष्करिणी, शवदाह स्थल, सीवली कुटी (मन्दिर सं 7), आंगुलिमाल कुटी, धातु स्तूप, जन्ताधर स्तूप, अष्ट स्तूप, राजिकाराम (मन्दिर सं0 19), पूतिगत तिस्स कुटी (मन्दिर सं 12)। शेष भग्नावशेष भी कुटियों के अथवा धातु स्तूपों के हैं।
गन्ध कुटि
इन स्तूपों के अलावा जिस स्तूप का सर्वाधिक महत्व है, वह है गन्ध कुटि (मन्दिर सं2)। भगवान् बुद्ध का यह निवास स्थान था। चंदन की लकडी से निर्मित यह सात तल की सुंदर भव्य कुटी थी। इसे अनाथपिण्क ने बनवाया था। वर्तमान खण्डर के ऊपर का भाग बुद्धोतर काल का पुनर्निर्माण है। नीचे का भाग बुद्ध्कालीन है, इसमें भगवान् बुद्ध की प्रतिमा बाद में स्थापित की गयी थी। चीनी यात्री फ़ाह्यान ने इस विध्वंस पर दो मंजिला ईंट का बना भव्य बुद्ध मन्दिर देखा था। ह्ववेनसांग के यात्रा काल मे वह मन्दिर नष्ट हो चुका था। ढांचें से स्पष्ट होता है कि दीवारों की आशारीय मोटाई छ: फ़ुट व प्रकारों की आठ फ़ुट है। सम्पूर्ण गन्धकुटी परिसर की माप 115 x 86 फ़ीट है।
धर्म सभा मण्डप
धर्म सभा मण्डप भगवान् बुद्ध का धर्मोपदेश देने का स्थान था। यहाँ भिक्षुओं और अन्य जनों को बैठाकर भगवान बुद्ध धर्मौपदेश करते थे। इनके द्वारा 844 धर्म उपदेश यही से दिये गये थे।
कुछ अन्य स्तूपों
मंदिर 11एवं 12
यह दोनों मदिर भू योजना में बिलकुल सामान है। प्रत्येक में एक मध्यवर्ती तथा दो पार्शववर्ती कक्ष है।मध्यवर्ती कक्ष के चतुर्दिक एक पदक्षिणा - पथ है जो इस बात का संकेत देता है की यहाँ एक मूर्ति रही होगी।
मंदिर 19 तथा संघाराम
यह जेतवन के विशालतम भवनों में से एक है। जिस में पूजा गृह , आँगन स्थित कुआँ, भिक्षुओं के लिए कोठरियाँ तथा एक द्धार मंडप स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है इस भवन का एक ही नीव पर तीन बार पुनर्निर्माण हुआ है। प्राचीनतम निर्माण 6 शताब्दी में मना जाता है और फिर इस का पुनर्निर्माण 10 शताब्दी और 11-12 शताब्दी में मना जाता है।
इस की एक कोठरी में कन्नौज के राजा गोविंदचंद्र का1130ई. का ताम दान -पत्र प्राप्त हुआ है। जिस में जेतवन महाविहार के भिक्षुओं के लिए श्रावस्ती के कुछ गांवों का अनुदान देने का उल्लेख है। इस दान पत्र से वर्तमान सेहठा के प्राचीन जेतवन की पुष्टि होती है।
इस से प्राप्त कुछ महत्वपूर्ण पुरावशेषों में मिटटी की एक बुद्ध की गुप्त कालीन मुहर सम्मिलित है जिस में बुद्ध को धर्मचक्रा मुद्रा में दिखाया गया है। 10ई. की बुद्ध की भूमि- स्पर्श मुद्रा वाली एक मूर्ति और एक बन्दर के हाथ से मधु -पात्र प्राप्तः करते बुद्ध की मूर्ति प्रमुख है।
यह जेतवन के विशालतम भवनों में से एक है। जिस में पूजा गृह , आँगन स्थित कुआँ, भिक्षुओं के लिए कोठरियाँ तथा एक द्धार मंडप स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है इस भवन का एक ही नीव पर तीन बार पुनर्निर्माण हुआ है। प्राचीनतम निर्माण 6 शताब्दी में मना जाता है और फिर इस का पुनर्निर्माण 10 शताब्दी और 11-12 शताब्दी में मना जाता है।
इस की एक कोठरी में कन्नौज के राजा गोविंदचंद्र का1130ई. का ताम दान -पत्र प्राप्त हुआ है। जिस में जेतवन महाविहार के भिक्षुओं के लिए श्रावस्ती के कुछ गांवों का अनुदान देने का उल्लेख है। इस दान पत्र से वर्तमान सेहठ के प्राचीन जेतवन की पुष्टि होती है।
इस से प्राप्त कुछ महत्वपूर्ण पुरावशेषों में मिटटी की एक बुद्ध की गुप्त कालीन मुहर सम्मिलित है जिस में बुद्ध को धर्मचक्रा मुद्रा में दिखाया गया है। 10ई. की बुद्ध की भूमि- स्पर्श मुद्रा वाली एक मूर्ति और एक बन्दर के हाथ से मधु -पात्र प्राप्तः करते बुद्ध की मूर्ति प्रमुख है। इस के अलावा मन्दिर सं। 19 एवं मोनेस्ट्री भी यहाँ है।
स्तूप संख्या 5
यह मूलतः एक स्तूप था। इसके ऊपर एक पूजा गृह निर्मित किया गया था जिसे फिर स्तूप में बदल दिया गया। प्राचीन स्तूप कुषाण कालीन मना जाता है जिस से 8 सदी से 10 सदी की बहुत सी अभिलिखित मोहरे प्राप्त हुई है
अंगुलिमाल स्तूप
अंगुलिमाल स्तूप डकैत के नाम पर है,जो बाद में अहिंसक नाम के भिक्सु बन गए थे।
महेथ- 400 एकड़ में फैला महेथ मूल श्रावस्ती माना जाता है। यहां की गई खुदाई से शहर के दो विशाल दरवाजे, परकोट और बहुत सी अन्य संरचनाएं प्राप्त हुई है जो इसके प्राचीन गौरव को दर्शाती है। शोभानाथ का मंदिर भी यहीं स्थित है। यह मंदिर जैन र्तीथकर संभवनाथ का जन्मस्थान माना जाता है। साथ ही यह मान्यता भी है कि यहां की कच्ची और पक्की कुटी प्रारंभ में बौद्ध मंदिर थे जिन्हें बाद में ब्राह्मी मंदिर में तब्दील कर दिया गया था।
जेतवन और प्राचीन श्रावस्ती खण्डरों के मध्य कोई अधिक दूरी नही है । लगभग दो बजे तक जेतवन से हम निकल कर प्राचीन श्रावस्ती के खण्डरों की तरफ़ चल पडे । यहाँ सडक किनारे कई मोनेस्ट्री और जैन मन्दिर दिखाई पडे । इसलिये पहले यही निर्णय लिया गया लि इन मन्दिरों से ही शुरुआत की जाये ।
प्रतिहार टीला ( ओडाझार )
मुख्य सडक के ठीक किनारे पर यह स्थान है । कहते हैं कि इस स्थान भगवान् बुद्ध ने विशाल जन समुदाय के मध्य श्रद्धी चमत्कार लिया था । हाँलाकि बुद्ध चमत्कारों के बिल्कुल भी पक्ष मे नही थे लेकिन एक वर्ग द्वारा उन्हें चुनोती देने के कारण बुद्ध ने यह निर्णय लिया । यह भी कहा जाता है कि बुद्ध ने यहाँ महामाया को अभिधम्म की देशना देकर अहर्त लाभ करवाया था एवं वर्षावास यहीं पूरा किया था ।
श्रीलंका आरामय बुद्ध मन्दिर
श्रीलंका की श्रद्धालु जनता के द्वारा निर्मित इस भव्य मन्दिर में भगवान बुद्ध की जीवन चर्या को भित्त चित्रों में बडे ही सजीव व कलात्मक शैली में अंकित किया गया है ।
कम्बोज बुद्ध मन्दिर
इस मन्दिर में बौद्ध शिल्प संस्कृति की अनूठी प्रस्तुति देखने को मिलती है । यह सहेठ महेठ तिराहे पर मुख्य सडक के दक्षिण मे स्थित है ।
जापानी घंटा पार्क
मुख्य सडक पर एक उधान में विशाल घण्टा लगा है ।
कोरिया बुद्ध मन्दिर
कोरियन शिल्प का यह महायानी बुद्ध मन्दिर मुख्य सडक पर है ।
मायानामर मोनेस्ट्री
इसके अतिरिक्त इसी सडक के दोनों ओर कई और भी मन्दिर हैं जैसे भारत के नव बौद्धों द्वारा निर्मित भारतीय बुद्ध मन्दिर , समय माता मन्दिर , महामंकोल बुद्ध मन्दिर आदि । ओडिझार पर हमें स्थानीय लोगों ने बताया कि यहाँ एक ‘शिव बाबा ’ का मन्दिर है जो वास्तव मे सम्राट अशोक द्वारा स्थापित पत्थर की शिला है जिसे स्थानीय जनता शिव लिंग मानकर पूजा अर्चना करती है । यहाँ तक पहुँचने के लिये ओडीझार के ठीक सामने की रोड से ‘ काब्धारी गाँव ’ के बगल से होकर इस स्थान तक वाहन या पैदल पहुँचाजा सकता है ।
भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में प्राचीन श्रावस्ती खण्डर का क्षेत्रफ़ल लभग 250 एकड है। इस विस्तूत खण्डरी जंगल के चारों तरफ़ ऊँचे टीले यह सिद्ध करते हैं कि सम्पूर्ण नगर ऊँचे प्राकारों से घिरा था। इन खणडरों के गर्भ में अभी बहुत कुछ अज्ञात पडा है। बुद्ध वाडगमय त्रिपिटक में सम्पूर्ण श्रावस्ती की तत्कालीन कला संस्कृति व सुख समृद्धि की भव्यता का विराट वर्णन है। पुरातत्व विभाग द्वारा की जा रही खुदाई व संरक्षण मे कुछ स्थल प्रमाणित किये गये हैं भारतीय।
सुदत्त महल ( कच्ची कुटी )
सुद्त्त यानी अनाथपिण्डक का यह निवास स्थल है । आज यह विध्वंस अतीत के विभिन्न काल खण्डों के मिश्रित वास्तु शिल्प का प्रतीक है । ये प्रतीक कुषाण काल से लेकर बारहवीं सदी तक के हैं । ऊपर पार्शव में चित्र मे सुदत महल के आस पास विदेशी सैलानियों के अपार समूह को देख सकते हैं । यह चित्र अगुंलिमाल गुफ़ा की छ्त से लिया गया है । कहते हैं कि काल प्रवाह में कोई संत जी कच्ची मिट्टी की कुटी बनाकर रहते थे इसी हेतु जनश्रुति में इस विध्वंस का नाम कच्ची कुटी पड गया ।
आंगुलिमाल गुफ़ा ( पक्की कुटी )
आंगुलिमाल गुफ़ा नाम जनधारणा में अनजाने में ही कहा गया है । चीनी यात्री ह्वेनसांग व फ़ाह्यान के यात्रा दृष्टातों में इस विध्वंस का आंगुलिमाल के स्तूप के रुप मे वर्णन है , परन्तु पुरातत्वविद होई के अनुसार यह धर्म मंडप का विध्वंस चिन्ह है । इसकी वास्तु रचना से यह विध्वंस स्तूप ही सिद्ध होता है । चित्र को देखें तो नीचे एक सुरंग नजर आ रही है । होई ने विध्वंस की सुरक्षा के लिये वर्षा के जल की निकासी हेतु यह सुरंग खुदवाई थी । एक मत के अनुसार यह स्तूप उस दुखी महिला का है जो प्रसव पीडा से आक्रान्त थी और जिसे भिक्षु आंगुलिमाल ने अपने तपोपुण्य से पीडा मुक्त कर माता एंव शिशु दोनों को जीवन प्रदान किया था । कालांतर मे कोई संत जी पक्की कुटी बना के रहने लगे तभी से इसका नाम पक्की कुटी पड गया ।
राजा प्रसेनजित का महल
पुरातव की खुदाई मे भी यह स्थल चिन्हित नही किया जा सका है , परन्तु यह सर्वविदित है कि श्रावस्ती बुद्ध काल में कोशल देश की एक मात्र राजधानी थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उस महल के विध्वंस को देखा था ।
इसके अलावा यहाँ सम्भवनाथ मंदिर है इस स्थान पर जैनों के तीसरे तीर्थकार सम्भवनाथ जी का जन्म हुआ था।
आभार : डॉ प्रभात टंडन
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