महाबोधि मन्दिर
महाबोधि मन्दिर का इतिहासलगभग 528 ई. पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया। गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए। वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्यान में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ित हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे। बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्ित के बाद वे अगले सात सप्ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ित की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्नों में खो जाता है। इसके बाद यह गांव सम्बोधि, वैजरसना या महाबोधि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख 18 वीं शताब्दी से मिलने लगता है।
बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के 250 साल बाद राजा अशोक बोध्गया गए। माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पह्ली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उस्की मरम्मत कराई गई।
6 वीं सदी में भारत में( सफ़ेद हुन) मध्य एशिया से भारत आयी एक लड़ाकू एक जनजाति जिस ने एक समय पूरे उत्तर भारत पर कब्ज़ा कर लिया था और शुरू के अरब इस्लामी आक्रमण जैसे -मुहम्मद बिन क़सीम. के हमलो ने भारत में बुद्ध धर्म को खत्म कर दिया था बौद्ध धर्म का पुनरूद्धार (मंदिर स्थित है जहां) उपमहाद्वीप के उत्तर पूर्व में पाल साम्राज्य के उत्थान के साथ फिर शुरू हुआ और महायान बौद्ध धर्म 8 वीं और 12 वीं सदी के बीच पाल साम्राज्य में खूब फला-फूला हालांकि, पाल साम्राज्य के हिन्दू सेना साम्राज्य से हार जाने के कारण बौद्ध धर्म की स्थिति फिर से भारत में कमजोर हो गयी और भारत में लगभग विलुप्त हो गया
12 वीं शताब्दी के दौरान, बोधगया और आसपास के क्षेत्रों के मुस्लिम तुर्क सेनाओं द्वारा हमला किया गया,इस अवधि के दौरान, महाबोधि मंदिर जीर्णता (बिना देख भाल के गिर गया) में गिर गया और काफी हद तक भुला दिया गया था। निम्नलिखित सदियों से, मठ के मठाधीश या महंत के पद पर यहाँ के जमीदारों द्वारा दावा किया जाने लगा जो मंदिर को अपनी सम्पति मानते थे।
11 वीं सदी और 19 वीं सदी तक , बर्मी के शासकों मंदिर परिसर और आसपास के दीवारो को बनवाया ,1880 के दशक में भारत के तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सर अलेक्जेंडर कनिंघम के निर्देशन में महाबोधि मंदिर को फिर से बनाने का काम शुरू किया 1885 में, सर एडविन अर्नोल्ड ने वेन .वेलिगामा श्री सुमंगला (बौद्ध भिक्षु ) के मार्गदर्शन में बौद्धगया का दौरा किया। उन्होंने बौद्धगया की स्तिथि पर कई लेख प्रकाशित किये जिस ने सारे विश्व के बौद्ध समुदाय का ध्यान बौद्धगया की और खींचा ,थोड़े समय बाद, 1891 में, श्रीलंका के बौद्ध नेता अनागारिक धर्मपाल ने इस बौद्ध मंदिर का नियंत्रण हिन्दू महतों से वापस लेकर बौद्ध धर्म के अनुयायी यो को वापस करने के लिए एक अभियान शुरू कर दिया,अभियान, 1949 में आंशिक रूप से सफल रहा था जब बिहार सरकार ने यह अधिकार हिन्दू महंतो से वापस ले लिया और एक प्रबंधन समिति बनायीं ,समिति में अध्यक्ष समेत 9 सदस्य है जिसे बिहार सरकार के कानून के मुताबिक अध्यक्ष समेत बहुमत में हिन्दू ही होना चाहिए। वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया।2013 में, मंदिर के ऊपरी हिस्से को सोने से ढक दिया गया जिसे थाईलैंड की महारानी ने दान दिया है
महाबोधि मंदिर अब
विश्वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति संबंध स्वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्त्ति स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्त्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्यक्ित आया और उसे मूर्त्ति बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त्त थी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ तथा एक लैम्प दिया जाए। उसकी एक और शर्त्त यह भी थी इसके लिए उसे छ: महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाजा न खोले। सभी शर्त्तें मान ली गई लेकिन व्यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया। मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मूर्त्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मूर्त्ति का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रुप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही मूर्त्ति का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। नालन्दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
यह विहार मुख्य विहार के नाम से भी जाना जाता है। इस विहार की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस विहार में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। विहार के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में विहार प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
इस विहार परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य विहार के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
इस विहार परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य विहार के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य विहार के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।
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