Friday 6 March 2015

बुद्ध भूमि कौशाम्बी, उत्तर प्रदेश
कौशाम्बी ,आधुनिक इलाहाबाद से 57 किमी की दूरी पर मौजूद है औरकौशाम्‍बी, बौद्धों के लिए एक प्रमुख तीर्थस्‍थल है। उत्‍तर प्रदेश राज्‍य में स्थित कौशाम्‍बी में हर साल भारी संख्‍या में श्रद्धालु दर्शन करने आते है। ऐसा माना जाता है कि भगवान बुद्ध ने यहां अपने कई उपदेश दिए थे। लापरवाही के कारण,पूरा शहर खंडहर में बदल गया है, इसके बावजूद भी यहां कई आकर्षक स्‍थल जैसे - किला, स्‍तुप और अन्‍य पुराने स्‍मारक है जो यमुना नदी के किनारे स्थित है।
बौद्ध भूमि के रूप में प्रसिद्ध कौशांबी पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक जिला है, जिसका मुख्यालय मंझनपुर है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है, जहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शीतला मंदिर, दुर्गा देवी मंदिर, प्रभाषगिरी, राम मंदिर आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम से 63 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कौशांबी को पहले कौशाम के नाम से जाना जाता था। यह बौद्ध व जैनों का पुराना केंद्र है। पहले यह जगह वत्स महाजनपद के राजा उदयन की राजधानी थी। माना जाता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध अपने छठे व नौवें वर्ष यहां भ्रमण के लिए आए थे।
बौद्ध काल में षोडश महाजनपदों में से एक कौशांबी को धनिकों की नगरी कहा जाता था। इतिहासकारों के अनुसार प्रसिद्ध धन्नासेठ कौशांबी के ही निवासी थे। तब यमुना नदी से ही पूरा व्यापार होता था। बुद्ध श्रावस्ती से कई बार चतुर्मास गुजारने के लिए कौशांबी आए। घोषिता राम एवं कुकक्टा राम नाम के दो व्यापारियों ने उनके ठहरने के लिए यहां विहार बनवाया था, जहां आज भी बुद्ध से जुड़ी यादें संरक्षित हैं। कहते हैं कि कलिंग युद्ध के बाद जब अशोक को हिंसा से नफरत हो गई, तो उसने भी कौशांबी की शरण ली और इसे अपना ठिकाना बनाते हुए यहीं से अहिंसा का संदेश प्रसारित करना शुरू किया। सम्राट अशोक ने कौशांबी में अशोक स्तंभ का भी निर्माण कराया। उत्खनन में मिले प्रमाण भी साबित करते हैं कि कौशांबी एक समृद्ध और विकसित नगरी थी, सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद अगर हिंदुस्तान में कहीं नगरीय सभ्यता के प्रमाण मिले हैं, तो वह कौशांबी भी है।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व कौशांबी प्रवास के दौरान बुद्ध ज्यादातर परलेयक वन में ही रहते थे। कहते हैं इस वन का राजा परलेयक हाथी बुद्ध के प्रभाव से उनके शरणागत हो गया था। परलेयक वन में देवश्रव्य कुंड है, जिसमें बुद्ध स्नान करते थे और स्नान के बाद परलेयक हाथी अपने एक बंदर मित्र के साथ मिलकर उन्हें खाने के लिए फल देता था। बुद्ध जब कौशांबी से जाने लगे, तो परलेयक काफी दूर तक उनके साथ गया, उनके लौटने को कहने पर वह वहीं रुक गया और विछोह में प्राण त्याग दिए। तत्कालीन राजा उदयन ने उसी स्थल पर परलेयक हाथी का स्मारक बनवा दिया। परलेयक वन कहां था इसकी जानकारी कौशाम्बी के लोगों को नहीं थी, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र सुरेश नागर ने यहां एक महीने मेहनत कर इस वन की खोज की। यह वन यमुना की तलहटी में प्रभाषगिरि के आस-पास फैला हुआ था।हालांकि, परलेयक वन की जानकारी कौशांबी वासियों को नहीं थी, वे इसे किस्से कहानियों का हिस्सा मानते थे, लेकिन एक शोधकर्ता ने जब इसकी खोज की, तो सभी का ध्यान इस ओर आया। यह वन यमुना की तलहटी में प्रभाषगिरि के आस-पास फैला हुआ था। यहीं पर देवश्रव्य कुंड व परलेयक हाथी के स्मारक का भी पता चला, जिनका जिक्र बौद्ध धर्म के पिटक ग्रंथों में है। प्रभाषगिरि पर्वत से करीब 8 किमी दूर चंपहा बाजार के पास गांव की आबादी से दूर परलेयक हाथी का स्मारक मिला, जिसे आजकल हाथी थान के नाम से जाना जाता है।
महराज उदयन की चर्चा के बगैर कौशांबी का इतिहास अधूरा है। बौद्ध काल के बाद उदयन का साम्राज्य फैला और गढ़वा का किला उनके वैभव की गवाही है। वैदिक काल में सशक्त पहचान बनाने वाली कौशांबी का मध्यकाल भी गौरवशाली रहा है। कड़ा का इतिहास मध्यकाल के सुनहरे पन्नों में दर्ज है, जहां की धरती को विद्रोह के लिए सबसे अनुकूल माना जाता था।
बौद्धों के लिए एक महत्‍वपूर्ण तीर्थ स्‍थल होने के नाते, कौशाम्‍बी में भगवान बुद्ध से जुड़े कई स्‍थल यहां स्थित है। खुदाई के दौरान पुराने कौशाम्‍बी में कई अशोक स्‍तंभ और गोसीटाममा मठ के अलावा अन्‍य स्‍मारकों का भी पता चला था। गोसित रामव विहार के लिए माना जाता है कि भगवान बुद्ध अपने प्रवास के दौरान यहां आकर ठहरे थे।
पहुंचने के साधन : कौशांबी पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा वाराणसी है। कौशांबी रेल मार्ग के जरिए भी भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा है। यह जगह सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख स्थानों से जुड़ी हुई है। कुल मिलाकर बुद्ध को जानने समझने की आतुरता कम करनी हो, तो उनसे जुड़े स्थलों का भ्रमण सहायक होगा। इसके लिए मन को स्थिर कर छोटी-बड़ी जगह का परहेज किए बगैर क्रम से सभी स्थ्लों तक जाना होगा। इन सबमें सबसे ज्यादा जरूरी है बुद्ध को रूह से महसूस करना, यदि यह संभव नहीं, तो ये स्थल महज तफरीह के लिए हैं।

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