कपिलवस्तु (उत्तर प्रदेश और नेपाल)
राजा शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु, अपने समय की बड़ी वैभवशाली नगरी थी।
आज के समय में यह नगर भारत - नेपाल की सीमा में बट गया है।
वर्तमान कपिलवस्तु उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले में, नेपाल की तराई क्षेत्र में स्थित है। यह उत्तर पूर्व रेलवे के गोरखपुर-गोंडा लूप लाइन पर स्थित नौगढ़ नामक तहसील मुख्यालय और रेलवे स्टेशन से 22 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है।
आर्कियोलजिक खुदाइ और प्राचीन यात्रीऔं के विवरण अनुसार अधिकतर विद्वान् कपिलवस्तु नेपाल के तिलौराकोट को मानते हैं जो नेपाल की तराई के नगर तौलिहवा से दो मील उत्तर की ओर हैं। विंसेंट स्मिथ के मत से यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का पिपरावा नामक स्थान है जहाँ अस्थियों पर शाक्यों द्वारा निर्मित स्तूप पाया गया है जो उन के विचार में बुद्ध के अस्थि है।
कपिलवस्तु नगरी लुप्त हो गई और उसकी चर्चा केवल इतिहास में बंद हो गई। वर्ष 1898 में अंग्रेज जमींदार डब्ल्यू.सी। पेप्पे ने कुछ खुदाई कराई तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब पता चला कि वहां तो एक स्तूप है। स्तूप की खुदाई करने पर एक सेलखड़ी (चौक स्टोन) का बना कलश मिला, जिस पर अशोककालीन ब्राह्मी लिपी में लिखा था - "सुकिती भतिनाम भगिनीका नाम-सा-पुत- दात्नानाम इयम सलीला-निधाने-बुद्धस भगवते साक्यिानाम।" इसका इतिहासकारों ने इस तरह अनुवाद किया है - "बुद्ध भगवान के अस्थि अवशेषों का यह पात्र शाक्य सुकिती भ्रातृ, उनकी बहनों, पुत्रों और पत्नियों द्वारा दान किया गया है।" यह पात्र आज भी कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में रखा है।यहां प्राप्त अस्थि अवशेषों को नेशनल म्यूजियम और इंडियन म्यूजियम में देखा जा सकता है। बुद्ध पूर्णिमा पर महाबोधि सोसाइटी इन अस्थि अवशेषों की विशेष पूजा आयोजित करती है। विश्व के अन्य देशों के पर्यटक भी कपिलवस्तु और अस्थि अवशेषों के दर्शनों के लिए आते हैं।
वर्ष 1971 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुरातत्ववेत्ता एवं निदेशक के.एम. श्रीवास्तव (1927-2009) ने उस स्थान पर और खोज तथा खुदाई का काम कराया। वर्ष 1972 में उसी स्तूप में लगभग दस फुट और गहराई पर, चौकोर पत्थर के एक बक्से में दो सेलखड़ी कलश मिले, जिनमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे थे। ये दोनों पात्र और अस्थियां नेशनल म्यूजियम, जनपथ, नई दिल्ली में रखे हैं। इतनी वस्तुएं मिलने के बाद भी यह कहना संभव न था कि यहीं कपिलवस्तु की नगरी थी।
के.एम. श्रीवास्तव द्वारा कराए जा रहे उत्खनन कार्य के फलस्वरूप 1973 में पूर्वी बिहार से पकी मिट्टी की मुद्राएँ पहली बार मिलीं, जिन पर लिखा था - "ओम देवपुत्र विहारे, कपिलवस्तु भिक्खु संघस" एवं "महाकपिलवस्तु, भिक्सु संघस"। दो मुद्राओं पर भिक्खुओं (भिक्षुओं) के नाम भी लिखे थे। इस अभिलेख ने उत्खनन कार्य को एक निर्णायक मोड़ प्रदान किया। फिर तो आसपास के क्षेत्र में खुदाई कराते ही पूरे कपिलवस्तु का प्राचीन अवशेष उभरकर सामने आ गया। बाद में के.एम. श्रीवास्तव ने बोधगया में वह स्थान भी खोजा जहाँ सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी। कपिलवस्तु की खोज के.एम. श्रीवास्तव की महान गौरवशाली खोज थी क्योंकि आज वह स्थान विश्वभर में बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए पवित्र तीर्थ बन गया है।
राजा शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु, अपने समय की बड़ी वैभवशाली नगरी थी।
आज के समय में यह नगर भारत - नेपाल की सीमा में बट गया है।
वर्तमान कपिलवस्तु उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले में, नेपाल की तराई क्षेत्र में स्थित है। यह उत्तर पूर्व रेलवे के गोरखपुर-गोंडा लूप लाइन पर स्थित नौगढ़ नामक तहसील मुख्यालय और रेलवे स्टेशन से 22 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है।
आर्कियोलजिक खुदाइ और प्राचीन यात्रीऔं के विवरण अनुसार अधिकतर विद्वान् कपिलवस्तु नेपाल के तिलौराकोट को मानते हैं जो नेपाल की तराई के नगर तौलिहवा से दो मील उत्तर की ओर हैं। विंसेंट स्मिथ के मत से यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का पिपरावा नामक स्थान है जहाँ अस्थियों पर शाक्यों द्वारा निर्मित स्तूप पाया गया है जो उन के विचार में बुद्ध के अस्थि है।
कपिलवस्तु नगरी लुप्त हो गई और उसकी चर्चा केवल इतिहास में बंद हो गई। वर्ष 1898 में अंग्रेज जमींदार डब्ल्यू.सी। पेप्पे ने कुछ खुदाई कराई तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब पता चला कि वहां तो एक स्तूप है। स्तूप की खुदाई करने पर एक सेलखड़ी (चौक स्टोन) का बना कलश मिला, जिस पर अशोककालीन ब्राह्मी लिपी में लिखा था - "सुकिती भतिनाम भगिनीका नाम-सा-पुत- दात्नानाम इयम सलीला-निधाने-बुद्धस भगवते साक्यिानाम।" इसका इतिहासकारों ने इस तरह अनुवाद किया है - "बुद्ध भगवान के अस्थि अवशेषों का यह पात्र शाक्य सुकिती भ्रातृ, उनकी बहनों, पुत्रों और पत्नियों द्वारा दान किया गया है।" यह पात्र आज भी कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में रखा है।यहां प्राप्त अस्थि अवशेषों को नेशनल म्यूजियम और इंडियन म्यूजियम में देखा जा सकता है। बुद्ध पूर्णिमा पर महाबोधि सोसाइटी इन अस्थि अवशेषों की विशेष पूजा आयोजित करती है। विश्व के अन्य देशों के पर्यटक भी कपिलवस्तु और अस्थि अवशेषों के दर्शनों के लिए आते हैं।
वर्ष 1971 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुरातत्ववेत्ता एवं निदेशक के.एम. श्रीवास्तव (1927-2009) ने उस स्थान पर और खोज तथा खुदाई का काम कराया। वर्ष 1972 में उसी स्तूप में लगभग दस फुट और गहराई पर, चौकोर पत्थर के एक बक्से में दो सेलखड़ी कलश मिले, जिनमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे थे। ये दोनों पात्र और अस्थियां नेशनल म्यूजियम, जनपथ, नई दिल्ली में रखे हैं। इतनी वस्तुएं मिलने के बाद भी यह कहना संभव न था कि यहीं कपिलवस्तु की नगरी थी।
के.एम. श्रीवास्तव द्वारा कराए जा रहे उत्खनन कार्य के फलस्वरूप 1973 में पूर्वी बिहार से पकी मिट्टी की मुद्राएँ पहली बार मिलीं, जिन पर लिखा था - "ओम देवपुत्र विहारे, कपिलवस्तु भिक्खु संघस" एवं "महाकपिलवस्तु, भिक्सु संघस"। दो मुद्राओं पर भिक्खुओं (भिक्षुओं) के नाम भी लिखे थे। इस अभिलेख ने उत्खनन कार्य को एक निर्णायक मोड़ प्रदान किया। फिर तो आसपास के क्षेत्र में खुदाई कराते ही पूरे कपिलवस्तु का प्राचीन अवशेष उभरकर सामने आ गया। बाद में के.एम. श्रीवास्तव ने बोधगया में वह स्थान भी खोजा जहाँ सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी। कपिलवस्तु की खोज के.एम. श्रीवास्तव की महान गौरवशाली खोज थी क्योंकि आज वह स्थान विश्वभर में बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए पवित्र तीर्थ बन गया है।
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